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एनसीईआरटी क्या अब पाठ्यक्रम में मुगल नहीं होंगे? जाने कब कब क्या क्या बदलाव हुआ?

इन दिनों एनसीईआरटी राष्ट्रीय शैक्षणिक और अनुसंधान परिषद काफी चर्चा का विषय बनी हुई है। भारत ही नहीं अमेरिका जैसे विकसित देश में भी इसकी चर्चा हो रही है। 1961 में गठित इस परिषद का मकसद शिक्षा को प्राथमिकता के केंद्र में रखते हुए बनाया गया था। इसके बाद 1962 में राष्ट्रीय एकता परिषद का गठन इस मकसद से किया गया की समाज में सांप्रदायिकता,क्षेत्रवाद, अलगाववाद जैसी समस्याएं उत्पन्न ना हो। उनका मानना था कि स्कूल के पाठ्यक्रम,पुस्तको द्वारा ही इतिहास के प्रति चेतना विकसित होती है। इसी आधार पर पाठ्यपुस्तक की विषय वस्तु इस प्रकार की होनी चाहिए। जिससे केंद्र अथवा राज्यों में अलगाववाद ,सांप्रदायिकता अथवा क्षेत्रवाद की भावना ना उत्पन्न हो। लेकिन इसके लिए सबसे पहले साक्षरता पर ध्यान देना जरूरी था ।1951 में जहां भारत की साक्षरता दर लगभग 18.3% थी। वहीं 1971 में 34.45% रही। इसी आधार पर पाठ्यक्रम में आवश्यक सुधार हो। इसके लिए एक कमेटी का गठन भी किया गया। दौलत सिंह  की अध्यक्षता में राष्ट्रीय शैक्षणिक समिति 1964 में गठित की गई। जिसने अपेक्षित सुधार दिए। इतना ही नहीं 1970 में भी भारत सरकार की सहमति से शिक्षा का राष्ट्रीयकरण किया गया। एनसीईआरटी जैसी किताबों से साम्राज्यवाद,जातिवाद ,क्षेत्रवाद हटाया जाए ,सबसे अधिक बल इसी कार्यक्षेत्र पर था।

कुछ विषय विशेषज्ञ भारतीय शिक्षा पद्धति में ब्रिटिश हस्तक्षेप और मार्क्सवाद के हावी होने की भी आलोचना कर रहे थे। इनका मानना है कि भारत का इतिहास एकपक्षीय बना दिया गया। ऐसा इतिहास जिसमें मार्क्सवादी विचारधारा भरपूर मात्रा में देखने को मिलती है। रोमिला थापर, अर्जुन देव, सतीश चंद्र जैसे इतिहासकारों और विषय विशेषज्ञों पर यह आरोप लगाया गया है कि उन्होंने भारत के इतिहास में काफी छेड़छाड़ की है। उसे अपने एकपक्षीय, निजी भावना के साथ प्रस्तुत किया है। इसी आधार पर 1977 में जनता पार्टी के समय भी शैक्षणिक विषयो में आमूलचूल परिवर्तन की बात की गई।

आलोचकों का मत

1977 मे भी आलोचकों का मत था कि आर्यों की उत्पत्ति का सिद्धांत, कांग्रेस का सेफ्टी बॉल का सिद्धांत अथवा मौर्य ,गुप्त साम्राज्य के साथ-साथ ब्रिटिश औपनिवेशिक काल का चरित्र खुलकर सामने नहीं आया। किताबों में मुगलों के शासन-प्रशासन आदि का मूल्यांकन और महिमामंडन जोर शोर से किया गया है। स्वतंत्रता के समय  मात्र कांग्रेस की भूमिका को ही बढ़-चढ़कर बताया गया है।बहुत से ऐसे विवाद है। जो खुलकर सामने नहीं आए।

इसी क्रम में 1980 में इंदिरा गांधी ने भी शैक्षणिक पुस्तकों में कुछ परिवर्तन किया, जो 2002 तक चला ।इसके बाद अटल बिहारी वाजपेई की सरकार बनी। उन्होंने इसमें कुछ परिवर्तन किया।इस परिवर्तन के साथ उन्होंने यह भी कहा कि अब हमने किताबों का भारतीयकरण किया है। लेकिन विपक्ष ने इसे भगवाकरण का नाम  दिया।

वर्तमान परिदृश्य क्या है

(1)वर्तमान परिदृश्य में देखा जाए तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 जिसमें शिक्षा में कुछ अनुभव आधारित पाठ्यक्रम और सुधार किए गए ।इसे  विषय विशेषज्ञों ने पुनः पुनर्संयोजन का नाम दिया है।

(2) कोविड-19 और उससे जुड़ी समस्याओं के चलते ।जब परिजनों ने सिलेबस को कम करने की मांग की तो एनसीईआरटी ने इस ओर ध्यान दिया।

आपको बता दें कि उपर्युक्त दोनों कारणों के साथ-साथ 1992 में यशपाल समिति भी बनी थी। जिसने,* लर्निंग विदाउट बर्डन* के साथ पाठ्यक्रम में सुधार पर बल दिया।जिस प्रकार से विवाद गहरा रहे हैं। उनसे ऐसा प्रतीत हो रहा है कि शिक्षा में राजनीति की पैठ और गहरी होती जा रही है। प्रश्न उठता है कि क्या अब पाठ्यक्रम में मुगल नहीं है?

इतिहास की पाठ्यपुस्तक थीम्स ऑफ इंडियन हिस्ट्री भाग 2 से मुगलों पर केंद्रित एक अध्याय हटाया गया है। वही 12वीं कक्षा से मुगलों के कृषक इतिहास और राजस्व पर एक महत्वपूर्ण अध्याय अभी भी मौजूद है। ऐसे में यह कैसे कहा जा सकता है कि किताबों से मुगल पूर्णतया विलुप्त कर दिए गए हैं ?विशेषज्ञों का मानना है कि यह विलोपन नहीं बल्कि पुनरसंयोजन की प्रक्रिया है। इसे डिलीशन नहीं रेसलाइजेशन का नाम दिया जाना चाहिए। दूसरा यह है कि यह विवाद बेबुनियाद है क्योंकि जो विषय हटाए गए हैं। वे मात्र 2 वर्ष के पाठ्यक्रम से ही हटाए गए हैं। 2022 -23 और 2023 -2024, के लिए।इन्हें हमेशा के लिए नहीं हटाया गया है। वहीं एक अन्य बात यह भी है कि सिर्फ इतिहास की किताब से ही नहीं बल्कि भूगोल ,राजनीतिक विज्ञान, गणित जैसे विषयों से भी कुछ चैप्टर हटाए गए हैं। जिनका मकसद बच्चों पर अत्यधिक भार ना डालना है।

वैसे देखा जाए तो 2005 में नवीन राष्ट्रीय पाठ्यक्रम  में एक नहीं ,कई दृष्टिकोण के साथ विशेषज्ञों  व लेखकों ने कुछ बदलाव किए थे।उनका मानना था कि पुस्तकों में राजनीतिक इतिहास की जगह सामाजिक ,आर्थिक और सांस्कृतिक इतिहास को महत्व मिलना चाहिए।

पाठ्यक्रम का चयन

एनसीईआरटी पाठ्यक्रम की रूपरेखा तैयार करने के लिए समिति का चयन शिक्षा मंत्रालय द्वारा किया जाता है। अतः कभी-कभी उनकी निजी विचारधाराएं भी इसमें समाहित हो जाती है। हमें समझना चाहिए जैसा हम पढ़ते हैं। वैसा ही हम सोचते भी हैं। फिर आगे चलकर हमारी पीढ़ी पर भी वही प्रभाव पड़ता है। ऐसे में पाठ्यक्रम का चयन निष्पक्ष होना चाहिए।विलोपन नहीं पुनर्संयोजन।

कोरोना महामारी और नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के आधार पर एनसीईआरटी ने इलेवंथ ट्वेल्थ क्लास के कुछ सब्जेक्ट से 1,2 अध्याय कम किए हैं। वह भी मात्र दो वार्षिक सत्र के लिए उन्हें हमेशा के लिए नहीं हटाया गया है ऐसे में कुछ बुद्धिजीवी वर्ग द्वारा जिस प्रकार से एनसीईआरटी की आलोचना की जा रही है वह निराधार है। लर्निंग विदाउट बर्डन आधार पर अगर कुछ सिलेबस कम किया जाए तो इसमें कोई आपत्ति भी नहीं है वैसे भी ज्ञान सिर्फ किताबों से ही नहीं आता हमारी शिक्षा नीति में तो इतनी खामियां हैं जिसका उचित समाधान करना जरूरी है काश यह रोजगारपरक होती अन्य देशों की अपेक्षा यहां की शिक्षा से मात्र क्लर्क तैयार हो रहे हैं एक अन्य बात यह भी है कि हमें वास्तविक समस्या पर ध्यान देना चाहिए जिस प्रकार से प्राइवेट स्कूलों में 1,2 चैपटर में बदलाव करके हर साल किताबों के ऊंचे दाम लेकर पेरेंट्स को खरीदने पर बाध्य किया जाता है वह असल समस्या की जड़ है। एक तो महंगाई ऊपर से यह शिक्षा प्रणाली उसमें भी आगे चलकर रोजगार की कोई गारंटी नहीं। क्यों नहीं ऐसे स्कूलों पर कार्रवाई की जाती? जो एनसीईआरटी  से इतर अलग ही राह पर चलते हैं। वैसे भी 2005 की नवीन राष्ट्रीय पाठ्यक्रम नीति में जो बदलाव किया गया ।वह कई दृष्टिकोण को साथ लेकर किया गया था ।ऐसे में ऐसे विवाद निरर्थक है समय की बर्बादी है।

दूसरी बात यह विवाद कोई नया नहीं है। इसे पैदा हुए तो चार दशक से भी से भी अधिक हो गए। है। हमें पाठ्यक्रम की राजनीति के बदलाव से ऊपर उठकर वास्तविक मुद्दों पर ध्यान देना चाहिए

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