हवन, कुंड निर्माण की शास्त्रीय विधि
आज चर्चा करेंगे की हवन, कुण्ड निर्माण के नियम क्या हैं? क्योंकि आज हवन कुण्ड को शास्त्रीय विधि से बनाना छोड़कर, सुन्दर बनाने पर अधिक ध्यान दिया जाता है। दुःख तो इस बात का है कि ब्राह्मण भी अपने यजमानों को इस विषय पर ही प्रोत्साहित करते हैं।अतएव, आइये चर्चा करें।
कुण्ड का मुख्य चिन्तन यज्ञ हेतु किया जाता है। इसके निर्माण की आवश्यकता आहुतियों की संख्या पर निर्भर है। आगे चर्चा करेंगे। एक कुण्डीय यज्ञ में मण्डप के बीच में ही कुण्ड होता है। उसमें चौकोर या कमल जैसा पद्म कुण्ड बनाया जाता हैं। कामना विशेष से अन्य प्रकार के कुण्ड भी बनते हैं। पंच कुण्डीय यज्ञ में आचार्य कुण्ड बीच में, चतुरस्र पूर्व में, अर्धचन्द्र दक्षिण में, वृत्त पश्चिम में और पद्म उत्तर में होता है। नव कुण्डीय यज्ञ में आचार्य कुण्ड मध्य में चतुरस्र कुण्ड पूर्व में, योनि कुण्ड अग्नि कोण में, अर्धचन्द्र दक्षिण में, त्रिकोण नैऋत्य में वृत्त पश्चिम में, षडस्र (षट् कोणीय) वायव्य में, पद्म उत्तर में, अष्ट कोण ईशान में होता है।
प्रत्येक कुण्ड में ३ मेखलाएं होती हैं। ऊपर की मेखला ४ अंगुल, बीच की ३ अंगुल, नीचे की २ अँगुल होनी चाहिए। ऊपर की मेखला पर सफेद, रंग,मध्य की पर लाल और नीचे की पर काला करना चाहिए। ५० से कम आहुतियों का हवन करना हो तो कुण्ड बनाने की आवश्यकता नहीं। भूमि पर मेखलाएं उठाकर स्थाण्डिल बना लेना चाहिए। ५० से ९९ तक आहुतियों के लिए २१ अंगुल का कुण्ड होना चाहिए। १०० से ९९९ तक के लिए २२.५ अंगुल का, एक हजार आहुतियों के लिए २ हाथ (१.५ फुट) का, तथा एक लाख आहुतियों के लिए ४ हाथ (६ फुट) का कुण्ड बनाने का प्रमाण है।
कुण्ड के पिछले भाग में योनियां बनाई जाती है। इनके सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का मत है। कि वह वाममार्गी प्रयोग है। योनि को स्त्री का मूत्रेन्द्रिय का आकार और उसके उपरिभाग में अवस्थित किये जाने वाले गोलकों को पुरुष अण्ड का चिह्न बना कर वे इसे अश्लील एवं अवैदिक भी बताते हैं। अनेक याज्ञिक कुण्डों में योनि-निर्माण के विरुद्ध भी हैं और योनि-रहित कुण्ड ही प्रयोग करते हैं। योनि निर्माण की पद्धति वेदोक्त है या अवैदिक, इस प्रश्न पर गम्भीर विवेचना अपेक्षणीय है।
लम्बाई, चौड़ाई, सब दृष्टि से चौकोर कुण्ड बनाने का कुण्ड सम्बन्धी ग्रन्थों में प्रमाण है। अनेक स्थानों पर ऐसे कुण्ड बनाये जाते हैं, जो लम्बे चौड़े और गहरे तो समान लम्बाई के होते हैं, पर वे तिरछे चलते हैं और नीचे पेंदे में जाकर ऊपर की अपेक्षा चौथाई-चौड़ाई में रह जाते हैं। इसके बीच में भी दो मेखलाएं लगा दी जाती हैं। इस प्रकार बने हुए कुण्ड अग्नि प्रज्ज्वलित करने तथा शोभा एवं सुविधा की दृष्ठि से अधिक उपयुक्त हैं। आर्य समाजों में ऐसे ही हवन-कुण्ड बनाये जाते हैं। इनके किनारे-किनारे एक पतली नाली भी होती है। जिसमें चींटी आदि कीड़े-मकोड़ों का अग्नि तक न पहुँचने देने की रोक रहती है। कुण्ड के आस पास जल -सिंचन इसी उद्देश्य के लिए ही किया जाता है।
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