जयपुर। जयपुर में महाराजा रामसिंह 2 ने 150 साल पहले यहां पर पतंगबाजी की शुरूआत की थी। मकर संक्रांति के मौके पर गुलाबी नगरी के प्रमुख पतंग बाजार किशनपोल, चांदपोल और हांडीपुरा रंग बिरंगी पतंगों और बरेली की खास डोर के साथ सज चुके हैं। जयपुर में वो काटा…वो काट का ही शोर सुनाई दे रहा है। जयपुर में पंतगबाजी (Jaipur Kite Flying) का अपना एक अलग ही इतिहास और गौरव है। पिंक सिटी के निवासियों मे पतंगबाजी का जबरदसत क्रेज है। ऐसे में हम जयपुर में पतंगबाजी (kite flying in jaipur) को लेकर जबरदस्त कहानी बता रहे हैं जो काफी मजेदार है।
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राजस्थान की राजधानी जयपुर में रियासत काल से ही पतंगबाजी का क्रेज रहा है। पतंगबाजी का जुनून जयपुर की रियासत (स्टेट पीरियड) से जुड़ा हुआ है। दरअसल, जयपुर में लखनऊ की तुक्कल से पतंगबाजी की शुरूआती की गई थी। बताया जाता है कि 1835 से 1888 तक जयपुर के महाराजा सवाई रामसिंह द्वितीय ने लखनऊ में पतंगे उड़ती देखी थी। जिसके बाद उनके मन में आया की ऐसी पतंगे जयपुर शहर में भी उड़नी चाहिए। इसी वजह से वो लखनऊ से कुछ पतंगसाज जयपुर ले आए और यहां पतंगबाजी की शुरुआत कर दी। खुद महाराजा रामसिंह मोटी डोर के साथ सिटी पैलेस की छत से तुक्कल नामक पतंग उड़ाते थे। उस दौर में कोई और पतंग उड़ा नहीं करती थी, ऐसे में जो पतंग तेज हवा से टूट जाया करती थी, उसे पकड़ने के लिए भी घुड़सवार तैनात रहते थे। यदि कोई जयपुर निवासी इस पतंग को पकड़ कर महाराजा के पास ले आता तो उसको पतंग के साथ चांदी के 10 रुपए का इनाम दिया जाता था।
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जयपुर की पतंगबाजी गंगा जमुनी तहजीब की मिसाल है। महाराजा रामसिंह जिन पतंगसाजों को लखनऊ से साथ लेकर आए थे, वे सभी मुस्लिम थे। इसके बार समय बीतता गया और उनका एक मोहल्ला बन गया। हालांकि, मकर सक्रांति हिंदुओं का पर्व है, लेकिन पतंग डोर का रोजगार मुस्लिमों का है। शुरूआत में जयपुर में आगरा, रामपुर और लखनऊ से डोर आया करती थी, लेकिन बाद में जयपुर में ही डोर बनाई जाने लगी।
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