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अध्यात्म, आरोग्य की अधिष्ठात्री शीतलाष्टमी, रोग से पूर्व आरोग्य का वरदान देती हैं- Morning News

एकता शर्मा-

करूणा की देवी  कुपित ना हो।  सहनशीलता और सहिष्णुता की देवी शीतला माता जिन्हें प्रत्येक वर्ष चैत्र माह के कृष्ण पक्ष की अष्टमी तिथि को पूजा जाता है। जिसे दूसरे शब्दों में बासौडा अष्टमी भी कहते हैं। उत्तर भारत से लेकर दक्षिण भारत तक इनकी मान्यता सर्वविदित है। मनुष्य में तीन गुण सत्व, रज ,तम होते हैं। इन्हीं तीनों गुणों में से जिस गुण की प्रधानता हम करते हैं । वही हमारा भविष्य और चरित्र बनता है। इसी आधार पर शीतला माता का यह पर्व  हमें संकेत देता है कि हमें तामसिक और राजसिक भोजन की बजाए सात्विक भोजन लेना चाहिए। अध्यात्म और आरोग्य से परिपूर्ण इस पर्व का ना केवल धार्मिक अपितु वैज्ञानिक महत्व भी है।

जैसा खाए अन्न वैसा हुआ मन अर्थात हम जैसा भोजन करेंगे। वैसा ही हमारी प्रवृत्ति बनेगी। इसी के साथ साथ माता के हाथ में झाड़ू इस बात का प्रतीक है कि ना केवल हम अपने घर बार की सफाई रखें । अपितु अपने मस्तिष्क में एकत्रित कचरे को भी समय-समय पर साफ करते रहे। गधे पर सवार होने का तात्पर्य है । हमें अपने निर्णय धैर्यवान और शांति से लेने चाहिए। आज की आपाधापी में मनुष्य तनाव, अवसाद और डिप्रेशन में जा रहा है । उसे चाहिए शीतलता ,यह शीतलता मिलती है। माता के हाथ में रखे कलश से ,जो इस बात का घोतक है कि अब ठंडे पेय अर्थात अधिक पानी पीने का समय आ गया है।

रोग से पूर्व आरोग्य।

रोग से पूर्व आरोग्य की सनातन परंपरा इसी देवी आरोग्य की अधिष्ठात्री से निकली है। जो नीम को हकीम बताती है। आने वाली पीढ़ी को अपने संस्कारों से अवगत कराने के लिए हमें अपने तीज ,त्योहार और पर्व का सांस्कृतिक महत्व के साथ-साथ वैज्ञानिक महत्व भी अपने बच्चों को समझाना चाहिए।  भारतीय संस्कृति और परंपरा प्राचीन काल से ही विविधताओं से परिपूर्ण और गूढ़ रहस्यों से भरी हुई है। तीज त्योहारों पर्वों यह देश वास्तव में अनेक सांकेतिक और प्रतीकात्मक गूढ़ रहस्य समझाता है। इसी में एक शीतलाष्टमी भी है।  चैत्र माह के कृष्ण पक्ष में आने वाला शीतलाष्टमी पर्व अपने आप में  विविधताओं से परिपूर्ण भी है। माता शीतला की इस दिन विधि विधान से पूजा की जाती है ।जिसे दूसरे शब्दों में बासोडा अष्टमी भी कहा जाता है।

आरोग्य की अधिष्ठात्री।

रोग से पूर्व आरोग्य हमारे सनातन ज्ञान परंपरा और आयुर्वेद की ही देन है। हमारे ऋषि-मुनियों ने सदियों पहले ही यह पता लगा लिया था कि एक स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का वास होता है ऐसे में शीतला अष्टमी का पर्व रोगी होने से पहले ही निरोगी रहने के सुझाव ,सतर्कता और समाधान देता है।

माता का स्वरूप।

शीतलाष्टमी का उल्लेख स्कंद पुराण में मिलता है। होली के आठवें दिन आने वाले इस पर्व को सुख शांति समृद्धि के साथ-साथ आरोग्य में वृद्धि का वरदान मानते हैं। माता के स्वरूप को देखा जाए तो साफ साफ पता लगता है कि उनके एक हाथ में कलश और दूसरे में झाड़ू है। तथा वे गधे पर सवार है। अब प्रश्न उठता है कि जहां दुर्गा शेर पर शिवजी नंदी पर गणेश जी चूहे पर सवारी करते हैं वही शीतला माता गधे पर सवारी क्यों करती है ? इसके पीछे आध्यात्मिक के साथ-साथ वैज्ञानिक कारण भी निहित है। सभी जानवरों में गधा शांति और धैर्यवान जीव माना जाता है ऐसे में जब मनुष्य भी धैर्यवान बनता है तो उसे ना केवल सफलता मिलती है अपितु शांति भी महसूस होती है।

वैज्ञानिक और पर्यावरणीय महत्व।

कितने आश्चर्य की बात है कि हमने हमारे धर्म को प्रकृति और पर्यावरण के साथ जोड़ कर रखा जो हमारे मूर्त अमूर्त संस्कृति का एक हिस्सा है। वास्तव में हमने प्रकृति के प्रत्येक प्राणी को समान दृष्टिकोण से देखा यही कारण है कि प्रकृति पर्यावरण और पारिस्थितिकी तंत्र के संतुलन में भारत ने हमेशा जीव जंतुओं पेड़ पौधों को भी अपनी सांस्कृतिक धरोहर समझा।अहिंसा परमो धर्म हमेशा से हमारे आदर्श रहे हैं। इसी का सूचक है कि हमने प्रकृति के सभी जीव जंतुओं को भी उतना ही आदर सत्कार दिया।

शीतला माता के हाथ में झाडू होने का संकेत यह है कि हमने स्वास्थ्य के लिए स्वच्छता को प्राथमिकता के केंद्र बिंदु में रखा। होली के बाद पर्यावरण में आने वाले परिवर्तन से अनेक मौसमी बीमारियां फैलने का खतरा रहता है ऐसे में वातावरण में बैक्टीरिया को निष्प्रभावी बनाने के लिए माता के हाथ में जो नीम है वह इसका संकेत है कि हम इसका प्रयोग इस समय उत्पन्न होने वाले रक्त विकारों से संबंधित रोगों में कर सकते हैं रक्त विकारों के परिणाम स्वरुप ही चर्म रोग कुष्ठ रोग तथा बैक्टीरिया की वजह से चेचक , चर्म रोग जैसे रोग होते हैं। इन से बचने के लिए इस मौसम में हमें नीम की कच्ची कोंपल का प्रयोग सुबह-सुबह खाली पेट करना चाहिए तथा नीम की पत्तियों को पानी में डालकर उस से स्नान करना चाहिए। उनके हाथ में कलश होने का मतलब है कि अब गर्मी आ गई है और ठंडे पानी का प्रयोग शुरू कर देना चाहिए।

मान्यता।
मान्यता है कि  शीतलाष्टमी  के दिन तड़के ब्रह्म मुहूर्त में उठकर रात का बनाया बासी भोजन भोग में चढ़ाते हैं। भोग में पूरी पूए , चावल ,गुड़ के चावल, राबड़ी, दही ,हल्दी , भीगी हुई चने की दाल, लोटे में पानी ,गेहूं के दाने बाजरे के दाने या बाजरे की रोटी चढ़ाने की मान्यता  है। हल्दी जो की रसोई के साथ-साथ आयुर्वेद का  भी एक महत्वपूर्ण घटक है। वैज्ञानिक दृष्टि से भी कीटाणुनाशक है।

इस दिन माता को भोग अर्पित करके महिलाएं ठंडी शीतल पानी के छींटे अपने घर और परिवार के सदस्यों की आंखों पर लगाती है जिससे कि उनकी आंखों की ज्योति बढ़ती है। घर में प्रवेश करने से पहले महिलाएं गेट के की चौखट पर शुभ लाभ और स्वास्तिक बनाती हैं माता के करवे डाले जाते हैं। उसके बाद बचा हुआ प्रसाद काले श्वान को भी देते हैं। नवविवाहिता विशेष रुप से मंदिर जाती हैं गणगौर पूजन करने वाली लड़कियां और महिलाएं सज धज कर कुम्हार के घर मिट्टी लाने जाती है। उसके बाद गणगौर बनाने की तैयारी होती है उससे पहले पिंडिये पूजे जाते हैं।

राजस्थान के चाकसू में स्थित शीतला माता मंदिर में भव्य मेले का आयोजन किया जाता है जहां लाखों श्रद्धालु हर साल पहुंचते हैं। इस दिन पूरा परिवार ठंडा भोजन ही करता है गर्म खाना नहीं बनता। इसकी भी एक पुरानी कहानी है। अष्टमी जिसे बासूड़ा भी कहते हैं इसके बाद से मौसम में परिवर्तन आना शुरू हो जाता है। अतःतब बासी भोजन को बंद कर देने का संकेत है। सहनशीलता और सहिष्णुता सिखाता है शीतला पर्व। हमारे पूर्वज और बुजुर्ग एक प्रकार से वैज्ञानिक आहार-विहार, आचार विचार में विश्वास रखते थे। इसी आस्था को हमने अपने देवी-देवताओं से जोड़कर पूजा है।

विविधताओं से परिपूर्ण।

जिस प्रकार बीमारी कोई जाति धर्म , वर्ण नहीं देखती ।सभी को समान रूप से होती है ।उसी के समाधान स्वरूप यह एक ऐसी देवी है ।जो लगभग संपूर्ण भारत और सभी कोमो द्वारा समान रूप से पूजी जाती है हिंदू मुस्लिम सिक्ख सभी इसे श्रद्धा और आस्था से पूजते हैं। विविधताओं से परिपूर्ण हमारे देश में कुछ मेले त्योहार, पर्व एकता और समरसता से परिपूर्ण है ।शीतलाष्टमी उसी का एक उदाहरण है। कोई इसे कुलदेवी तो कोई इष्ट देवी के रूप में पूजता है।

कुलदेवी वह देवी होती हैं। जो हमारी कुल से संबंधित होती है। जिसे हमारे पूर्वज सालों से पूजते आए हैं।जो वंश से संबंधित होती है। किंतु इष्ट देवी वह देवी होती है जिसे हम अपनी इच्छा श्रद्धा से पूजते हैं अथवा यदि हम एक नगर से दूसरे नगर में चले जाएं। तो वहां की देवी हमारे लिए इष्ट देवी बन जाती है। सही मायने में शीतला माता इष्ट देवी  के समान है ।जो किसी भी धर्म या सीमा में बंधी हुई नहीं है। यही कारण है कि उसे सभी धर्मावलंबी समान रूप से पूजते हैं।

 

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