डा. उरुक्रम शर्मा
भाजपा पांच राज्यों में इस साल के अंत में होने वाले विधानसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी के चेहरे और केन्द्र सरकार के कामों को लेकर सत्ता की कुर्सी तक पहुंचने का रास्ता बना चुकी है। स्थानीय नेताओं को दरकिनार करके निकाला गया, यह रास्ता कहीं भाजपा के लिए ही भारी ना पड़ जाए? सवाल यह है कि जीत गए तो सेहरा मोदी-शाह के बंध जाएगा और हार गए तो ठीकरा किससे माथे फूटेगा। हिमाचल प्रदेश और कर्नाटक में भाजपा ने इसी फार्मूले पर चुनाव लड़ा था और जनता ने सत्ता से बाहर का रास्ता दिखा दिया था।
यह बात दूसरी है कि भाजपा इस पर भी मोदी को जिम्मेदार नहीं ठहरा रही, ना ही यह मानने को तैयार है कि मोदी की लोकप्रियता में गिरावट आई है। कर्नाटक में स्थानीय कद्दावर नेता येदियुरप्पा को साइड लाइन करके चुनावी जंग लड़ी थी। दोनों राज्य ही भाजपा के हाथ से निकल गए। लेकिन इस हार के लिए किसी को जिम्मेदार नहीं ठहराया गया। भाजपाइयों का कहना है कि कर्नाटक में तो सर्वे में भाजपा को सिर्फ 40 सीटें मिलने का आंकड़ा सामने आ रहा था, मोदी के उतरने से यह संख्या 66 तो पहुंच गई। इसी तरह हिमाचल प्रदेश में प्रेम कुमार धूमल को देर रखकर भाजपा ने चुनाव लड़ा। हार हुई। इस पर भी भाजपाइयों का कहना है कि हार जीत में एख फीसदी से भी कम वोटों का अंतर रहा हैै। मोदी का चेहरा नहीं होता तो भारी शिकस्त का सामना करना पड़ता।
राजस्थान, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम में भी चुनाव होने हैं। भाजपा के पास मध्यप्रदेश में सरकार है और मिजोरम में सरकार का हिस्सा है। राजस्थान, छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। इन सभी राज्यों में मोदी का ही चेहरा होगा, स्थानीय उम्मीदवार सिर्फ यूज किए जाएंगे। मुख्यमंत्री भी मोदी की भाजपा ही तय करेगी। कहने का अर्थ यह है कि जिन कद्दावर नेताओं ने राज्यों में भाजपा को मजबूत किया, विपक्ष में रहने के सफर को समाप्त करके सत्ता की राह दिखाई, उन सभी को लालकृष्ण आडवाणी व मुरली मनोहर जोशी की तरह ही गुमनामी की जिन्दगी दी जाएगी।
कहने को तो भाजपा कार्यकर्ताओं की पार्टी है, हकीकत में ऐसा नहीं है। भाजपा सत्ता हासिल करने के लिए किसी भी स्तर पर जाने वाली पार्टी बन चुकी है। इसके कई उदाहरण हैं, जिनमें महाराष्ट्र, मध्यप्रदेश आदि तो ज्वलंत हैं। राजस्थान में अमित शाह और जेपी नड्डा ने पूरी तरह हर क्षेत्र का विश्लेषण करने के बाद साफ कर दिया कि स्थानीय चेहरा नहीं होगा। इससे वसुंधरा राजे को अभी मुख्यमंत्री फेस नहीं बनाया जाएगा। वसुंधरा की लोकप्रियता को सत्ता हासिल करने की सिर्फ सीढी बनाया जाएगा। जयपुर राजघराने की पूर्व राजकुमारी दीया कुमारी को आगे बढ़ाने का काम किया जा रहा है। परिवर्तन यात्रा से वसुंधरा राजे ने पूरी तरह दूरी बनाकर रखी।
विशेषज्ञों का कहना है कि वसुंधरा के बिना भाजपा मैदान में उतरती है तो अशोक गहलोत को दुबारा सरकार बनने से रोका नहीं जा सकता है। मध्यप्रदेश में शिवराज सिंह चौहान के लिए भी राह मुश्किल है। ज्योतिरादित्य सिंधिया और नरेन्द्र तोमर केन्द्र में मंत्री है। उन्हें विधानसभी चुनाव लड़ने की झंडी दे दी गई है। यशोधरा राजे का टिकट कटना लगभग तय हो चुका है। ऐसे में शिवराज सिंह चौहान की मध्यप्रदेश से विदाई हो सकती है। सरकार बनती है तो तोमर या सिंधिया को कमान सौंपी जा सकती है।
छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार है। भाजपा के पास वहां रमन सिंह जैसा कोई बड़ा नेता नहीं है। रमन सिंह के साथ भी राजस्थान व छत्तीसगढ़ की तरह ही बर्ताव किया जा रहा है। छत्तीसढ़ में भी इसी विषय को लेकर बवाल मचा हुआ है। मोदी-शाह की भाजपा इन सबको दरकिनार करते हुए अपने स्तर पर तय की गई रणनीति से आगे बढ़ रही है। कहने को तो दिल्ली में बैठकें हो रही है, लेकिन वो मात्र औपचारिकता भर है। हो वही रहा है जो मोदी-शाह का एजेंडा पहले से तैयार होता है। उसी पर सभी को हां भरनी पड़ रही है। तेलंगाना और मिजोरम में भाजपा का कोई वजूद नहीं है। मिजोरम में सरकार की सहयोगी है, जबकि तेलंगाना में कुछ भी हासिल नहीं है।
राजस्थान में भाजपा को सरकार बनने की सबसे ज्यादा संभावनाएं नजर आ रही है, लेकिन पिछले छह महीनों में अशोक गहलोत ने जिस तरह से छलांग मारी है, उससे भाजपा का रंग फीका पड़ा है। अब तक के प्रत्येक सर्वे में गहलोत के पक्ष में बहुमत होने की बात सामने आ रही है। वसुंधरा के बिना गहलोत को मुकाबला संभव नहीं है। ऐसे में भाजपा को फिर विपक्ष में बैठने को मजबूर होना पड़ सकता है।
विशेषज्ञों का कहना है कि वसुंधरा की अनदेखी की गई तो वो चुप बैठने वाली नहीं है। ना ही आडवाणी की भूमिका निभाने वाली। टिकट वितरण के समय ही सारी स्थिति स्पष्ट होने की पूरी संभावना है। प्रश्न यह है कि इन राज्यों में मोदी का फेस होने के बावजूद भाजपा की हार होती है तो कांग्रेस जबरदस्त ताकत के साथ उभरकर सामने आएगी, जिसका सीधे तौर पर 2024 के लोकसभा चुनाव परिणाम पर असर देखने को मिलेगा। हालांकि भाजपाइयों ने इसका भी तर्क निकाल रखा है। पिछले विधानसभा चुनाव में हार के बावजूद इन राज्यों से लोकसभा चुनाव में जबरदस्त सीटों पर जीत हासिल करने में मदद मिली थी।
वस्तुस्थिति यह है कि लोकसभा चुनाव में तो लोग मोदी के साथ जाने को तैयार हो जाते हैं, क्योंकि देश का मसला होता है। विधानसभा चुनावों में स्थानीय नेताओं की उपेक्षा राज्य की जनता की उपेक्षा की तरह ले लिया जाता है, जिसका परिणामों पर सीधा असर पड़ता है। बहरहाल देखने वाली बात यह है कि मोदी-शाह की भाजपा को उनके वार से जीत मिलती है या उनका वार उनके लिए ही घातक हो जाता है, यह तो विधानसभा चुनाव परिणाम आने के बाद बिल्कुल स्पष्ट हो जाएगा।
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