क्या होंगे इसके नकारात्मक और सकारात्मक पक्ष?
एक तरफ हम महिला पुरुष की समानता, सहभागिता, समावेशी विकास की बात करते हैं। दूसरी तरफ हम उन्हें शारीरिक रूप से कमजोर मानते हुए पीरियड लीव की वकालत करते हैं। पीरियड लीव लेने के बाद क्या वे आराम कर पाएंगी? बहुत से सवाल मन में उठते हैं। एक तरफ जहां हम महिलाओं को पीरियड लीव देने की बात कर रहे हैं। वहीं दूसरी ओर वर्कप्लेस में महिलाओं की भागीदारी निरंतर घटती जा रही है। यह किस ओर संकेत कर रहा है? क्या हम विकास के पथ पर दौड़ रहे हैं?
भारत में क्या है स्थिति?
भारतीय समाज अभी भी रूढ़िवादी और पितृसत्तात्मक सोच से जूझ रहा है। यहां आज भी महिलाएं और लड़कियां पीरियड्स पर खुल कर बात नहीं कर पाती। इन दिनों को वे परिवार और समाज से छुपा कर रखना चाहती है। दर्द ,परेशानी, असहनीय पीड़ा झेलती रहती हैं। लेकिन फिर भी घर के कामों में लगी रहती है। फिर वे सोचती है इससे तो अच्छा पुराना समय था, जब कम से कम महिलाओं को 3 दिन के लिए ही सही, रसोई से आराम मिल जाता था। हां भेदभाव जरूर होता था किंतु कम से कम वे कुछ आराम तो कर पाती थी। लेकिन आज स्थिति बिल्कुल उलट हो गई है। अब क्योंकि एकल परिवार बढ़ गए हैं ऐसे में पीरियड्स के दौरान महिलाओं को रसोई के काम भी करने पड़ते हैं। इन परेशानियों में जब वे एक वक्त भी रसोई में जाए बिना नहीं रह सकती तो फिर आप समझ सकते हो उन पर कार्य का कितना बोझ होगा। रसोई के कार्य के साथ-साथ कामकाजी महिलाओं की स्थिति तो और अधिक दयनीय है। क्योंकि उन्हें घर के साथ-साथ ऑफिस का काम भी करना पड़ता है। ऑफिस जाने पर घर से शिकायतें, ताने सुनने पड़ते हैं। अगर तुम ऑफिस का काम कर सकती हो तो फिर घर का काम क्यों नहीं कर सकती? अगर घर पर रूकती है तो घर का पूरा बजट प्रभावित होता है। ऊपर से ऑफिस में कार्य प्रभावित होने के साथ-साथ कार्य क्षमता पर भी सवाल उठाए जाते हैं। ऐसे में कामकाजी महिलाओं पर दोहरा कार्य भार देखने को मिलता है संकोच और शर्म के मारे वे इस बात को अपने बॉस या सहकर्मियों से भी नहीं कह पाती। कभी-कभी तो नौबत इतनी खराब हो जाती है कि अनेक महिलाओं को अस्पताल के दर्शन करने पड़ते हैं। गर्भाशय से जुड़े अनेक रोग, कैंसर से लेकर हारमोंस के बदलाव उन्हें सहन करने पड़ते हैं। कुछ महिलाएं तो शारीरिक के साथ-साथ मानसिक पीड़ा भी झेलती है। इतना ही नहीं एक सर्वे में तो यह भी दावा किया गया है कि आजकल इस स्थिति में महिलाएं आत्महत्या को भी गले लगा रही हैं।
फिर क्या हो मध्यम मार्ग, क्या पीरियड लीव मिलनी चाहिए?
भारत में मातृत्व लाभ अधिनियम 1961 जिसमें एक धारा(14) आती है। उसके अनुसार वर्कप्लेस पर वर्किंग महिलाओं, माताओं को डिलीवरी के बाद आधे-आधे घंटे के दो ब्रेक देने के नियम निकाले, जब तक कि बच्चा 15 माह का ना हो जाए। अब इसी आधार पर मासिक अवकाश की मांग रखी जा रही है। बहस का दौर 2018 में भी चर्चाओं में आया था ।तब लोकसभा में इस बिल को लाया गया था। इस मुद्दे पर केंद्र के साथ-साथ राज्यों में भी स्थिति अलग-अलग है। अभी तक बहुत से राज्य इस ओर ध्यान नहीं दे रहे। हां बिहार एक ऐसा राज्य है जिसने 1992 में पहली बार पीरियड लीव की शुरुआत की। वहीं जनवरी 2023 में केरल में भी उच्च शिक्षा विभाग के तहत विश्वविद्यालय में वूमेन स्टूडेंट को पीरियड लीव देने का फैसला किया। आधी आबादी का नेतृत्व करने वाली महिलाएं क्या पीरियड्स लीव की हकदार है? क्या,इस संवेदनशील विषय पर सरकार जागरूक होंगी? स्वास्थ्य और कल्याण राज्य की प्राथमिक जिम्मेदारी है। ऐसे में राज्य सरकार को भी इस ओर गंभीर होना चाहिए।
वैश्विक स्तर पर क्या है स्थिति?
वैश्विक स्तर पर अनेक देशों ने कामकाजी महिलाओं के प्रति संवेदना प्रकट करते हुए उन्हें पीरियड लीव दी है। जिसमें चीन, इटली, ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया, जापान, रूस, ताइवान जैसे अनेक देश शामिल है। स्पेन वह पहला राष्ट्र बना जिसमें सवैतनिक मासिक धर्म अवकाश प्रदान करने की मंजूरी दी। ऐसे में क्या भारत को भी इस ओर ध्यान देना चाहिए?
चुनौती क्या क्या है? क्या महिलाओं और छात्राओं को मिलना चाहिए मासिक लीव?
इस पर हुए एक शोध में यह बताया गया कि लगभग 20% महिलाएं इस दौरान गंभीर पीड़ा से गुजरती है और उस दौरान 14% महिलाएं 2 से 3 दिन का अवकाश भी लेती है। यही नहीं भारत में तो 70% महिलाएं इस विषय पर बातचीत करने से भी कतराती हैं। हमने कभी भी इसे वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नहीं देखा। शायद इसी का परिणाम है कि अनेक मंदिरों में भी इस दौरान महिलाओं के प्रवेश पर निषेध है।
पीरियड्स पर लीव के नकारात्मक पक्षों की बात करें तो अनेक महिलाएं पीरियड के दौरान छुट्टी ना देने के पक्ष में भी नजर आती है। इसके पीछे उनका तर्क यह है कि जब हम बराबर वेतन का मुद्दा उठाती हैं। समानता की बात करती है। तो फिर पीरियड के आधार पर अगर हमें छुट्टी मिलती है तो क्या यह उचित होगा? उनका मानना है कि महिलाओं को पहले ही मातृत्व अवकाश में एक लंबा समय मिल रहा है। ऐसे में वे पुरुष के मुकाबले कार्य में पिछड़ जाएंगी। इतना ही नहीं एक शोध में यह भी दावा किया गया है। कि अगर पीरियड लीव सरकार ने घोषित कर दी, तो महिलाओं को रोजगार मिलने में भी अड़चन आएंगी। उन्हें कंपनियां कार्य और कार्य की गुणवत्ता के आधार पर संस्थान में कम भागीदार बनाएंगी। ऐसे में महिलाओं को मिलने वाला रोजगार घटेगा, वैसे ही महिलाओं की भागीदारी जीडीपी में निरंतर घटती जा रही है ऐसे में वर्कप्लेस पर उनकी भागीदारी का घटना आगे उनके आत्मनिर्भरता के क्षेत्र को प्रभावित करेगा।
दूसरी तरफ कुछ पुरुष वर्ग भी है। जो पीरियड लीव को उचित नहीं मानते। उनका भी तर्क यही है। इससे महिला सशक्तिकरण में बाधा पहुंचेगी साथ ही कार्य भार भी प्रभावित होगा। ऐसे में सवाल उठता है कि हमें विचार करना चाहिए एक मध्यम मार्ग पर, जिससे महिलाएं इस स्थिति में भी स्वस्थ रह सकें। स्वस्थ शरीर में ही स्वस्थ मस्तिष्क का निवास होता है। महिलाओं को होने वाली अधिकांश बीमारियां मासिक धर्म से ही शुरू होती है। ऐसे में अनियमित, अनियंत्रित दिनचर्या को संतुलित करने के लिए सरकार को स्वास्थ्य की ओर ध्यान देना चाहिए। साथ ही इस विषय पर वैज्ञानिक शोध में वृद्धि की जाए। जिससे महिलाएं उन दिनों में होने वाली पीड़ा से निजात पा सकें। वैसे यदि सरकार चाहे तो 3 दिन का ना सही एक दिन का अवकाश तो महिलाओं को मिल ही सकता है।
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